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वतन से दूर / आन्ना अख़्मातवा
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यह
तीसरा वसन्त है मेरा
लेनिनग्राद से दूर
तीसरा
और मुझे लगता है
कि यह होगा आख़िरी
लेकिन कभी नहीं
कभी नहीं भूलूँगी मैं
भूलूँगी नहीं मरते दम
कि यहाँ कितनी प्रिय थी मुझे
पेड़ों की छाँह तले कल-कल करती जलधार
प्रिय ये चमचमाते आड़ू
प्रिय थी बैंगनी बाड़
रोज़-रोज़ निखरती उसकी सुवास
ऐसे में
कौन भला कहेगा
कहेगा कौन गुस्ताख़
कि मैं हूँ वतन से दूर
दूर किसी परदेस में
(ताशकन्द, सन्, 1944-45)
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : सुधीर सक्सेना