वन-वन के झरे पात, / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

वन-वन के झरे पात,
नग्न हुई विजन-गात।

जैसे छाया के क्षण
हंसा किसी को उपवन,
अब कर-पुट विज्ञापन,
क्षमापन, प्रपन्न प्रात।

करुणा के दान-मान
फूटे नव पत्र-गान,
उपवन-उपवन समान
नवल-स्वर्ग-रश्मि-जात।

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