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वफ़ा के नूर से ख़ुद को सजा के बैठी हूँ / रिंकी सिंह 'साहिबा'

वफ़ा के नूर से ख़ुद को सजा के बैठी हूँ।
किसी की याद में दुनिया भुला के बैठी हूँ।

क़मर को अक्स मेरा जब से कह दिया उसने,
फ़लक पे जा के मैं नाज़ ओ अदा के बैठी हूँ।

जुनून ए इश्क़ ने जोगन बना दिया मुझको,
दयार ए यार पे सर मैं झुका के बैठी हूँ।

करो न ख़ाक पे मातम मेरी जहां वालों,
अना की आग में ख़ुद को जला के बैठी हूँ।

ग़म ए हयात मेरे दर पे कब ठहरता है,
क़रीब आ के मैं अपने ख़ुदा के बैठी हूँ।

हर एक नक़्श ए क़दम का ये मर्तबा है मेरे,
मैं दश्त ओ सहरा को गुलशन बना के बैठी हूँ।

वफ़ा पे उसकी है क़ुर्बान दो जहां 'रिंकी',
जमाल ए यार पे हस्ती लुटा के बैठी हूँ।