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वरूणावत / शिवप्रसाद जोशी

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यह एक पहाड़ का नाम है
जिसके नीचे भागीरथी बहती है
उत्तरकाशी बसती है
 
उत्तरकाशी फिर आ गयी है कविता में
दहशत दुविधा दुख से भरी हुई
कातर होकर देखती कविता के पहाड़ को
उससे फूटी खतरनाक दरारों को
उससे गिरते पत्थरों और पेड़ों को
मस्जिद मुहल्ले और इंदिरानगर के मलबे को
गंगोत्री राजमार्ग को

वरूणावत कविता में आएगा इस तरह
किसने सोचा था
धूल उड़ाता टूटता ग़रज़ता गोद को गर्द से भरता
उत्तरकाशी नहीं बचेगी
गई वह लोग दिल पर पत्थर रख कर कहते हैं

वरूणावत इतना ज़िद्दी और ढीठ औऱ निर्दयी पहाड़ है
कि हर चीख के बदले एक पत्थर लुढका देता है
ये पत्थर
उम्मीदों सपनों और संघर्षों को छोड़ देते
लालच के अलावा उन पर भी गिर रहे हैं