वर्षा-श्री / नरेन्द्र शर्मा
वह बैठी भरी जवानी में वर्षा-श्री तरु की डाली में,
कैसी सुन्दर लगती लाली खपरैलों की, हरियाली में!
वह दूर दीखता खेत धान का, काँप रहे छवि के अंकुर,
बक शुक्लपंख ज्यों श्वेत शंख, शोभित मरकत की थाली में!
कुछ और दूर, चमचम करती चादर चाँदी की थर थर थर,
सारस की जोड़ी डाक रही—प्रतिध्वनि-कम्पित समीर-सागर!
जीवन की गति-सी ट्रेन चली जाती, आँखें हैं निर्निमेष—
जी करता है घंटों देखूँ यह वर्षा-श्री मन भर भर कर!
किन चलचित्रों की परछाईं धरती पर अंकित होती है?
वर्षा-श्री का यह बाग़, बीज थी बूँद—धूल में सोती है!
आषाढ़ मास की बूँद मुक्त मोती-सी बरसी थी नभ से,
पर मानव की ही आँख आज निरुपाय लहू क्यों रोती है?
तप रहा तवे-सा विश्व, बूँद लोहू की खो देती लाली;
मानव का आपातकाल, दूर है वर्षा-श्री की हरियाली!
बीतेगा आपातकाल किन्तु, शोणित की बूँद नहीं निष्फल;
मानव की वसुधा भरी-पुरी होगी ज्यों मरकत की थाली!