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वर्षा में नगर / वरवर राव

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»  वर्षा में नगर

मैना !

हमारे घरों बाज़ारों

और बिना किसी लक्ष्य के हमारे आँगनों में

खोदती ही रहती हैं गड्ढे...


वर्षा और बाढ़ में सड़ने-गलने

और दुर्गन्ध आने पर भी

नगरपालिका के अधिकारियों के वादों के ढेर

बिखर कर पानी बन जाते हैं

बारिश का इन्तज़ार करते रहते हैं बच्चे ।


छत से गिरते पानी को बटोरते हुए

भरपूर बारिश होने के बाद

पानी में खेलने जाकर

बच्चे गढों में गिरकर

गटक लेते हैं पानी

पानी का इन्तज़ाम करने के लिए भेजे गए बच्चों के प्रति

आश्वस्त माताएँ ध्यान नहीं देतीं ।


(मैं उन सोसायटी के लोगों की बात

नहीं कर रहा हूँ जो कान्वेंट अथवा

टी.वी. के सुपुर्द कर देते हैं बच्चों को)

बोतलों की शराब से लेकर

टी. वी. की रामायण तक की

पिताओं की प्रश्न-चर्चाओं में

गायब रहते हैं बच्चे ।

(मैं उस नागरिक समाज की बात

नहीं कर रहा हूँ जो साहित्य से लेकर

शान्ति की दौड़ तक उत्सुकता दिखाता)

पानी दिशाहीन बच्चों की तरह

मन चाहे स्थानों

सड़कों और गन्दी बस्तियों

गलियारों में उभर कर कीचड़ बना है ।


उसको सुबह देखते ही लगता है

शहर भर में फैल चुका है

नगरपालिका का कीचड़ ।


बच्चे जो गिर गए थे गढे़ में

क्या हुआ उनका

बच्चे अगर तैरते हैं एक-दूसरे के नाज़ुक हाथों को

आपस में देकर सहारा

रात के अंधेरे में गूंगी रोशनी की तरह

जो रोशनी खो गई है

उसे ढूंढ सकेंगे ?

खड्ग से लैस नाव की तरह

तैर कर फूल की नाव की तरह

बच्चे आ गए होंगे ।


रचनाकाल : 1.8.1988