भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वलय / सारिका उबाले / सुनीता डागा
Kavita Kosh से
कुहासे का
एक शुभ्र वलय बनकर
तुम जाती रहती हो ऊपर-ऊपर
घरों के धुएँदान से
ऊपर और ऊपर ।
अपनी देह के सभी व्रण
मेरे पास रखकर
तुम विलीन होती हो नीले बादल में
तुम विलीन होती हो सफ़ेद बादल में
तुम विलीन होती हो सघन
श्यामल मेघ में
पर नहीं बरसती हो तुम
मात्र घूमती रहती हो जड़ता से
प्रसव-पीड़ा को सहती हुई
जाती रहती हो दूर-दूर
अब क्या होगा इस
वीर्यवान पुरुष का ?
कई वर्ष हो गए
नहीं मिलती है
एक भी सुरक्षित गुफ़ा
कई वर्षों से नहीं उतरता है
मेरा कैफ़
चलो अब मैं नकारता हूँ
यह बाज़ी-बाज़ी का खेल
खिड़कियों के सभी घर हुए तुम्हारे
अब तो आ जाओ
और मेरे पास हैं जो
तुम्हारे ज़ख़्मों के निशान
ले जाओ फिर से ।
मूल मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा