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वसंतागमन / शशि पाधा
Kavita Kosh से
मैंने उसको दूर क्षितिज से
धीरे-धीरे आते देखा।
नदिया के दर्पण में मुखड़ा
देखे और शृंगार करे
झरनों की पैंजनियाँ बाँधे
रवि किरणों से माँग भरे
मैंने उसको दिशा दिशा में
स्वर्णिम आभा भरते देखा।
कभी वो ओढ़े हरित चुनरिया
कभी वो पहने पुष्पित माल
कभी वो झाँके किसलय दल से
कभी सजाए केसर भाल
मैंने उसको बड़े चाव से
पंखुड़ियों से सजते देखा।
पुलकित हों वे धरती के कण
जहाँ-जहाँ वो पाँव धरे
कुहुक-कुहुक कर कोकिल उसका
गीतों से आह्वान करे
मैंने उसको गोद धरा की
उपहारों से भरते देखा।
पीत सुनहरी लाल गुलाबी
पुष्पों की वो पहने चोली
मलयानिल मकरंद बिखेरे
मँडराई भँवरों की टोली
डाल-डाल से पात-पात से
मैंने उसको हँसते देखा।