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वसन्ते-बिरहिनी / कालीकान्त झा ‘बूच’

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नव-नव पप्पल मे हँसलै पुरनी कचनार गय
बूढ़ी महुओ तर लगलै-रऽसक पथार गय
मलय वसातक मंतर पड़लै
विपटल हो ई आम मजड़लै
चौबट्टी पड़का जुग जुगहा
पीपड़ नव पनकी सँ भड़लै
पिंक्की के पिक् कऽ रहलै, निक्की दुलार गय
बेली पॅजियाबय कनैल के
बेल नुकावय रसक घैल के
सरियाबय नव गठित गात के
गड़ियाबय पछबा बसात के
कदली कनिया कऽ रहलै घोघे उघार गय
शूल-शूल पर फूल बनौलनि
खूब मालती मोन मनौलनि
गम-गम कऽ उठलीह चमेली
रूसलि चम्पा सासुर गेली,
विधवो सिम्मर पर लगलै सिनुरी बजार गय
मंगल कुशल कहू की वेशी
सपने मे अयला परदेशी
चिर-पिपास पर छल-छल प्याली
भागऽ लागल क्षुधा अकाली
ओरक उस्सर पर खसलै रसवन्ती धार गय
रहलहुँ शेष राति भरि जागलि
हुनक दोष की ? हऽम अभागलि
रसक अथाह सिन्धु छल उछलल
प्राण मुँदा बुन्ने ले विद्वल
लग-लग अकाशे चन्ना धरती अन्हार गय
बूढ़ी महुओ तर...