Last modified on 28 मार्च 2011, at 19:21

वसन्त की रात-1 / अनिल जनविजय

खिड़की के पास खड़ी होकर
वो चांद पकड़ना चाहे
फैली थी वितान में ऊपर
उसकी दो पतली बाहें

चमक रहा था उसका चेहरा
थी वसन्त की रात
चेहरे पर बरस रहा था उसके
चन्द्रकिरणों का प्रपात