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वसन्त / मंगलेश डबराल

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इन ढलानों पर वसन्त
आएगा हमारी स्मृति में
ठण्ड से मरी हुई इच्छाओं को फिर से जीवित करता
धीमे-धीमे धुन्धवाता ख़ाली कोटरों में
घाटी की घास फैलती रहेगी रात को
ढलानों से मुसाफ़िर की तरह
गुज़रता रहेगा अन्धकार
चारों ओर पत्थरों में दबा हुआ मुख
फिर उभरेगा झाँकेगा कभी
किसी दरार से अचानक
पिघल जाएगा जैसे बीते साल की बर्फ़
शिखरों से टूटते आएँगे फूल
अंन्तहीन आलिंगनों के बीच एक आवाज़
छटपटाती रहेगी
चिड़िया की तरह लहूलुहान

1970