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वसीयत / अशोक तिवारी

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घर से निकलने से पहले
मैं चाहता हूँ रोज़ाना
कि कर दूँ अपनी वसीयत
पंखों के सिमट जाने
अंडों के बिखर जाने
नीड़ के उजड़ जाने से पहले
और
सबको शामिल रखने की प्यास
हो जाए इससे पहले कहीं ग़ायब
मैं चाहता हूँ करके जाना वसीयत
न जाने किस दिन खो जाऊँ
अदृश्य भीड़ में
और पाऊँ अपने आपको धर्माचार्यों के निशाने पर
घर से निकलने से पहले हर रोज़
छू लेना चाहता हूँ
जी भरकर बच्चों की उँगलियों को
सफे़द काग़ज पर उतार लेना चाहता हूँ
नन्हे पैरों की छाप को
देख लेना चाहता हूँ
दीवारों को जी भरकर
ताकि लौटकर आने पर
अगर मिले मुझे पत्थरों और खपच्चों का ढेर
दरवाजे़ का बंदरवान
खंडहर बने घर की बुलंदी पर
मेरे दिल की तरह फड़फड़ाता
और तड़पता हुआ
नज़र आए मुझे
सपनों का अनचाहा अंत
ढूँढ़ सकूँ कम से कम
बच्चों की तुरही के ज़रिए
जो गुनगुना सके
मेरे मन के अनकहे तार

मैं लिख जाना चाहता हूँ वसीयत
कि अगर न आ सकूँ वापस
काम से घर लौटकर
साबुत जिस्म न लौटा सकूं पत्नी को
बच्चों को न दे सकूँ उनका बाप
एक माँ को अपना बेटा
अपने अंग-भंग का ज़िम्मेदार हूँगा
मैं ख़ुद
मेरी उस हालत के लिए
कोसा जाए सिर्फ़ मुझे
और कर दिया जाए
मेरे अंगों को इलैक्ट्रिक क्रेमेटोरियम के हवाले
मेरे जिस्म का एक-एक कतरा
आ सकता हो अगर काम
रख दिया जाए उसे
प्रयोगशाला में चीरफाड़ के लिए

यह कहने में कोई हिचक नहीं
दूर रखा जाए मुझे
पंडित, मुल्लों और पाखंडियों से
कर्मकांड
के नाम पर मेरे जिस्म के साथ
कोई खिलवाड़ न की जाए
लालची और मूर्खों को किसी भी तरह की कोई
छूट न दी जाए
परलोक के नाम पर ठगी करने वालों को
दुत्कार दिया जाए
खदेड़ दिया जाए उन्हें तुरंत
घर की देहरी से बाहर
उनकी गालियों की नहीं की जाए कोई परवाह
मेरी तेरहवीं पर नहीं कराया जाए
कोई ब्राह्मणी पाखंड
किसी भी तरह का कोई भोज
नहीं जिमाया जाए उन्हें
हो अगर बहुत लाजमी भोज ही
बैठाया जाए उसमें तमाम उन लोगों को
जो रहे हैं सहचर मेरे
मेरी ज़िंदगी के रेशों को सुलझाया है जिन्होंने
बुलाया जाए सबसे पहले बौला को-
बौला, जो जीवन में कभी पढ़ तो नहीं पाया
मगर दूसरों के इशारों पर
पढ़ने का नाटक ज़रूर करता रहा
जिबरिस बोलता रहा
बहलाता रहा सबका मन
पूरी करता रहा
बालकों और बूढ़ों की फ़रमाइशें
ढोता रहा अपना बदन
पेटभर रोटी के लिए मात्र
जो उसे कभी मिली ही नहीं
मगर पेट की भूख के लिए
वो पसरता रहा सबके सामने
चारपाई वो बुनता ऐसी
न बुन पाए आसपास कोई वैसी
वक़्त पे आता, वक़्त से जाता
जाहिल फिर भी वो कहलाता
(कथित नीच जात जो था)
काम में न थी उसके कोताही
जाड़ा हो या मई जुलाई
खाट टाट हो या हो लाई
या हो जुताई, खेत बुबाई
चारपाइयाँ टूटती रहीं और बुनती रहीं
निखरता रहा उसका हुनर
हर मार पर हँसता रहा
और हर ठहाके पर रोता
और कहता रहा-
‘हम तो आदमी हैं’
और फिस्स से हँस जाता था

ढूँढ़कर लाया जाए
रामप्रसाद मास्साब को
बैठाया जाए उन्हें सबसे आगे
जिन्हें कथित नीच जात का नेतृत्व करने के कारण
वंचित किया गया बहुत से अधिकारों से
जिनसे मैंने सीखी
मेहनत की क ख ग
संघर्ष की वीणा के तार कसे
मौलवी साहब को ढूँढ़कर
अदब से बुलाया जाए
जिनका नाम
मेरे लिए मौलवी से बढ़कर कुछ रहा भी नहीं
बासुदेव और चंद्रपाल मास्साब को कहा जाए
कि वो अपनी छड़ी लेकर आएँ
माफ़ी माँग ली जाए वशीर और अंसारी मास्साब से
मैं अभी तक अपनी ग़लती के लिए ख़ुद को माफ़ नहीं कर पाया हूँ
पर गोपाल कृष्ण मास्साब से यह ज़रूर कहा जाए कि
उनके ग़ुस्से का तोड़ यक़ीनन ठीक नहीं हुआ था
ममता की मेज़ मैंने नहीं हिलाई थी
सत्यप्रकाश की जगह मुझे लगे
आपके लात और घूँसों ने
अन्याय के प्रति ग़ुस्सा करना सिखाया मुझे

तमाम उन दोस्तों को न्योता दिया जाए उसमें आने का
जो मेरे सपनों का हिस्सा बने रहे हैं
चुप्पी हो या न हो, इस पर कुछ नहीं कहना मुझे
क्रांतिकारी अभिवादन क़बूल किया जाए मेरा
शोकसभा में आए सभी साथियों को
परलोक या आत्मा की शुद्धि के लिए
कोई गीत न बजाया जाए
ज़रूरी हो बजाना अगर कोई भजन
बजाया जाए कबीर की लुकाठी को जला देने का सार
नानक की पगड़ी को चढ़ा दिया गया
सूली पर कैसे सरेबाज़ार
पलटू को जलाया गया फिर-फिर
कर दिया बहिष्कृत रैदास को
दरबदर ठोकर खाने के लिए
वली के क़ब्र से भी दरबदर होने की दास्तान
गाई जाए बार-बार
मीरा के उन पदों को गाया जाए
जिन्हें भुला दिया गया है
और जो आदमीयत और प्यार की बात करते हैं
अमीर खुसरो और बुल्लेशाह
की शायरी के लफ़्जों को गुनगुनाया जाए बार-बार
जिनसे हो सकें प्रतिबद्ध
न केवल गाने के लिए उन सुरों को
बल्कि बनने के लिए उन जैसा
इन्हीं सुरों में डुबो दी जाए रात की
हर ग़मगीन फ़िजाँ
नोट किया जाए हर दिल की धड़कन को
उन धड़कनों के सुरों में मैं हूँगा
और ज़रूर हूँगा
यही तो है जो छूटा होगा इस ज़मीन पर मेरा
और बसा हूँगा मैं क़तरे-क़तरे में

खत्म होती ज्यों रहेगी मानवीय सरोकारों की दुनिया
मारा जाएगा जब-जब निरीहों और निरपराधियों को
असभ्य, बर्बर और जंगलियों के हाथों
खत्म हो रहा हूँगा मैं भी उसी तरह क़तरों में
मर रहा हूँगा लगातार, बार-बार लड़ते हुए सच के लिए
सच के साथ
मेरी वसीयत है।
……………
15/02/2003