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वहाँ आकर बैठनेवाले कस्‍तूरी मृग / कालिदास

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आसीनानां सुरभितशिलं नाभिगन्‍धैर्मृगाणां
     तस्‍या एवं प्रभवमचलं प्राप्‍य गौरं तुषारै:।
वक्ष्‍यस्‍यध्‍वश्रमविनयने तस्‍य श्रृंगे निषण्‍ण:
     शोभां शुभ्रत्रिनयनवृषोत्‍खातपड़्कोपमेयाम्।।

वहाँ आकर बैठनेवाले कस्‍तूरी मृगों के नाफे
की गन्‍ध से जिसकी शिलाएँ महकती हैं,
उस हिम-धवलित पर्वत पर पहुँचकर जब
तुम उसकी चोटी पर मार्ग की थकावट
मिटाने के लिए बैठोगे, तब तुम्‍हारी शोभा
ऐसी जान पड़ेगी मानो शिव के गोरे नन्‍दी
ने गीली मिट्टी खोदकर सींगों पर उछाल
ली हो।