भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वही दरबारी तरीके / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
वही राजा -वही परजा
वही दूरी
वही ऊँचे महल
सपनों के झरोखे
राजपथ पर वही फिसलन
वही धोखे
वही दरबारी तरीके - जी-हुज़ूरी
तार सोने के
शहर पैबंद सिलते
आँख-मूँदे
बस्तियों से दिन निकलते
रोज़ जलसे में गुज़रती रात पूरी
रेशमी चेहरे
लगाये हैं जमूरे
गुंबजों की भीड़ में
सूरज अधूरे
शाह की मीनार - हैं पहरे ज़रूरी