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वह एक माँ / औरत होने की सज़ा / महेश सन्तोषी

जो औरत अभी-अभी मेरी बाहों में थी
वह मेरी पत्नी नहीं थी और न ही वह मेरे
किसी बच्चे की माँ थी पर वह एक माँ जरूर थी
क्योंकि उसके स्तनों में दूध था
जो बार-बार मेरे होठों को छू रहा था
सहसा मुझे ऐसा लगा
जैसे उसका बच्चा कहीं दूर चीख रहा था
और मुझसे पूछ रहा था
तुमने मेरी माँ का दूध भी
मेरे होठों से छीन लिया मैं सोचता रहा
सचमुच हमने औरत का
सभी कुछ बाँट लिया है यहाँ तक कि उसके
दुधमुहें बच्चे का दूध भी मुझे ऐसा भी लगा
हमने औरत को सिर्फ
औरत की तरह ही जिया
और, जब-जब
उसके शरीर को ओढ़ा
उसके सारे रिश्तों को
कपड़ों की तरह उतार कर फेंक दिया।