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वह घड़ी भी याद आये / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

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वह घड़ी भी याद आये!
मैं कुहू के कुंज में, जब कंठ था तुझको लगाये!

नैन तेरे रस रहे थे,
स्निग्ध बेला की लरों से
देह मेरी कस रहे थे,
इन दृगों ने मोतियों से केश थे तेरे सजाये!
वह घड़ी भी याद आये!

होंठ गुम-सुम हो गये थे,
श्याम सिजिया पर तनिक-
सी देर को ये सो गये थे,
इन करों ने अश्रु अपने उन लटों से थे सुखाये!
वह घड़ी भी याद आये!

इन कपोलों पर, चिबुक पर,
बन गये थे चित्र अनगिन
माँग से सिन्दूर लग कर,
जो-कि तेरे नील अंचल ने, सवेरे थे मिटाये!
वह घड़ी भी याद आये!