वह जो कहीं नहीं है / अशोक तिवारी
वह जो कहीं नहीं है
वह जो
जीता रहा अधूरी ज़िंदगी,
वह जो
मरते-खपते
ढूढ़ता रहा
जीने का सहारा
अपनी मेहनत और
कला के बल पर
ज़िंदगीभर
कहीं नहीं है
कहीं भी नहीं है ......
उसकी कला पर लगी
मुहर में
उसके नाम का
कोई संकेत तक नहीं है
वह जो कहीं नहीं है
दूर-दूर तक
व्याप्त है मगर क़तरों-क़तरों में
रगों में बह रहे
खून की हर कोशिका में
और ऐसा है जो
लाख कोशिशों के बावजूद
निकाला नहीं जा सकता
उन यादों से
जो रहना चाहती हैं याद
इंसानियत के लिए
उन यादों को
याद रखने की कोई रिवायत
नहीं है मगर
इतिहास के किसी भी कोने में
किसी भी हर्फ़ में
नहीं है उसका कोई ज़िक्र
सरपट दौड़ती ज़िंदगी के
भागते लम्हों में
किसको फ़ुरसत है इतनी
कि झांक सके कोई
ऊंची-ऊंची भव्य इमारतों की
ईंटों के बीच
छू सके
उन निशानों को
जहां मौजूद है उसकी जिजीविषा
पत्थरों की कारीगरी में
उसके बच्चों की किलकारी
चीख़ और भूख की छाप
पत्नी की सूनी आँखों का आवेग
माँ-बाप की पथराई उम्मीद
दर्ज हैं जहां
चंद रोटी के टुकड़ों में
खरीदे गए उसके हाथ
और हुनर का दर्द
मेहनतकश की रोटी की
असल क़ीमत जाननी है
और चखना है
अगर असली स्वाद
तो चखो
उन इमारतों की किरचों को छूकर
महसूस करो
समूची इन्द्रियों से
उन सांसों की गरमाहट
जो बीत गए काम करते-करते
चिकने धरातल के भीतर
मौजूद खुरदरेपन में
समाया है जहां
पूरा का पूरा अनलिखा इतिहास
जो गढ़ा नहीं गया है
जड़ा गया है
मज़दूर के मज़बूत हाथों से
भविष्य की सीमाओं के परे
तय करो उससे पहले मगर
अपनी दृष्टि का आधार
इधर या
उधर !!