वह दिन भी आ ही गया
जब, वह पचपन की हो गई
और मैं रह गया
बचपन का
एक बार फिर-फिर...
यह आश्चर्य की नहीं
प्रेम की पराकाष्ठा थी
मेरी आकांक्षा मेरी थी,
उसकी वह जाने
सूर्योदय की गरिमाएँ और लालिमाएँ
पूर्ववत थीं और संभवत: अपनी तरह ही
जिसमें हर कहीं अंकुरित हो रहा था प्रेम
जैसे ज़मीन में जमकर अंकुरित होता है
आलू ।