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वह नींद में बोलती है / शैलजा सक्सेना

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वह चुप रही!

छोटी थी जब वह
पतंग सी उड़ने की उमर में,
किसी और के हाथ अपनी डोर दिये,
बस उतना ही उडी,
जितना उडाया उसके माँ-बाप ने,
चिड़िया नहीं बन पाई!

जब थमा दी डोर
किसी और को
वह चुप रही,
उड़ने लगी दूसरे के आँगन में!

फिर उडी उतना, जितना उडाया गया उसे।
सास जब बरसी तेज़ बारिश सी,
वह धरती हो गई
और पी गई अपना ओर उनका क्रोध चुप,
पति बरसा जब ओलों सा
उसने घास सी नुकीली पलकें झुका लीं,
और गोल पत्थर सी हो गई
जिसे सुविधानुसार लुढ़काया जा सकता था,
बिस्तर से चूल्हे तक,
आँगन से ठाकुरद्वारे तक!

जितना वह बनी लुढ़कने योग्य
उतनी ही बिछी प्रशंसाये।

चुप ही रही उम्र के तीन चौथाई हिस्से में,
अब हैरान हैं बच्चे
कि वह नींद में बोलती है,
नींद में रोती है,
नींद में हँसती है!

नींद अब उसके भीतर दिन बन कर आती है
और वह उस दिन को अपनी मर्जी से
पूरा-पूरा जी पाती है।