भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वह पान भरी मुस्कान / राही मासूम रज़ा
Kavita Kosh से
कवि नरेन्द्र शर्मा के लिए
वह पान भरी मुस्कान
न जाने कहाँ गई ?
जो दफ्तर में,
इक लाल गदेली कुर्सी पर,
धोती बाँधे,
इक सभ्य सिल्क के कुर्ते पर,
मर्यादा की बण्डी पहने,
आराम से बैठा करती थी,
वह पान भरी मुस्कान तो
उठकर चली गई !
पर दफ्तर में,
वो लाल गदेली कुर्सी
अब तक रक्खी है,
जिस पर हर दिन,
अब कोई न कोई
आकर बैठ जाता है
खुद मैँ भी अक्सर बैठा हूँ
कुछ मुझसे बड़े भी बैठे हैँ,
मुझसे छोटे भी बैठे हैँ
पर मुझको ऐसा लगता है
वह कुरसी लगभग
एक बरस से ख़ाली है !