भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वह प्यार - 2 / लाल्टू

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हारी पीठ पर से कुछ अणु
मेरी हस्त – रेखाओं में बस गये हैं
जहां भी जाता हूं
लोगों से हाथ मिलाता हूं
उनके शरीर में कुछ तुम आ जाती हो
और वे सुन्दर लगने लगते हैं अचानक
कम नहीं होती मुझमें तुम
जहां कहीं से भी लौटता हूं
तुम होती हो हथेलियों पर
सड़कों से नाचते – नाचते लौटता हूं घर
दरवाजा खोलते ही खिलखिलाता हंस उठता है
दीवार पर पसरा भगतसिंह