भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वह रहेगा सब कहीं / राजी सेठ
Kavita Kosh से
आकाश ने कहा
वह रहेगा नहीं जल में न थल में
न धरती पर न बस्ती में
न नगर में न जंगल में
न पेड़ों पर न घरों पर
न तन में न मन में
न चुनेगा कुछ न छोड़ेगा कभी
वह रहेगा अभीत
निर्प्रीत
अखण्ड सब कहीं
घर ने कहा--- मैं तुम्हे बाँट दूंगा
खड़ा रखूँगा बाहर
दरवाजा बन्द करके
जल ने कहा--- धर लूँगा तुम्हें भीतर
प्रतिबिम्ब बना कर
बस्ती ने कहा---बना लूँगी तुम्हे अपनी
छत
धरती ने कहा---टिका लूँगी तुम्हे अपनी
बाहों पर
पेड़ों ने कहा---उचक कर चाक कर देंगे
सीना
तन ने कहा--- मुझे नहीं चाहिये अपहुँच
मन ने कहा--- तू निस्सम्बन्ध अमूर्त
आकाश हँसा
चमका, गड़गड़ाया
फिर बरस गया सब पर
सब कहीं