वह हिन्दी है, हिन्दी रहने दो! / भावना सक्सैना
अर्धशती भी पार नहीं है,
कितना बदल गए हैं कब से!
वह तो सदियों चल आई है,
तो भी बदली नहीं बहुत है।
क्यों फिर उसकी सिलवट तुमको
भाषा अलग नई लगती है?
दूर देश जब पहुँचे तुम तो,
साड़ी धोती छूट गयी सब।
वह भू के कोने-कोने में,
अब भी अपने ही वसनों में!
व्यसन रहें कितने भी तुम में,
तो भी जुड़े हुए हो जड़ से!
उसने कुछ अपनाए तो
नाम नया क्यूँ दे डाला है?
घर की देहरी जब छोड़ी उसने,
सकुचाई कुछ शरमाई थी
लेकर मुट्ठी में साहस बस,
सागर पार चली आई थी।
कईं माह की यात्रा दुष्कर
कष्ट कठिन से कठिन भयंकर!
ला छोड़ा बीहड़ में, फिर भी
देख उजाड़ न घबराई थी।
रीत पुरानी सीख सुहानी,
अपनाकर बस,
हाथ बढ़ाया, गले लगाया।
कठिन तपस्या, कड़ी साधना
हिंदी ने घर यहाँ बनाया।
सुगृहिणी-सा जोड़-जोड़ कर
कुशल एक संतुलन बनाया।
जरा रूप रंग बदल गया है,
पहनावा कहीं उधार लिया है,
पर हिन्दी है,
सरनामी, बात फ़िजी की, नैताली,
कहते तुम जिसको,
वह हिन्दी है!
रची बसी है दिलों में कितने,
कितने नित अपनाते हैं।
कितने इसके ही कारण से
रोजी रोटी पा जाते हैं।
देश में हो, विदेश रहो या,
इसे कमान लिए रहने दो,
मत रेल चलाओ एक्सप्रेस कोई,
अलग अलग मत बाँटो गुट में,
एक कमान में रहने दो।
तब होगी वह आगे सबसे
विश्व फ़लक पर लहराएगी,
होगी सबसे अधिक ज़ुबान पर
विश्व भाषा कहाएगी।
परिवर्तन तो नियम पुराना
कुछ परिवर्तन हो जाने दो,
कहो नई मत भाषा उसको,
हिंदी है,
हिंदी रहने दो!