भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वह / अरविन्द घोष / कुमार मुकुल
Kavita Kosh से
अपने बागीचे में उंची भूरी दीवार के पास
लेटी है वह, पास खडे चांदी के बदन वाले भोजवृक्ष ने
अपना चौडा हरा साया उपर तान रखा है
मध्य में छाया की एक दीवार बनाता सा
कामुक सूरज उसे देखने को झुका सा है
वहां वस्त्र का कोई टुकडा नहीं
तभी धीमी हवा चली, एक बादल गुजरा धीरे से
सुनता पेडों को, एक पत्ता भी हिल नहीं रहा था
सब उस दिव्य गर्भ की रक्षा कर रहे थे
एक छुपी चिडिया के आगमन से रोमांचित से।