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वह / विश्वनाथप्रसाद तिवारी

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वह मौन था ।
एक सन्नाटा उसके चारों ओर
बर्फ़ की तरह जम गया था ।
एक शब्दकोश को पचा जाने की कोशिश में
उसकी चेहरा विकृत हो रहा था ।
भाषा उसकी नसों में
ज़हर बनकर फैलती जा रही थी ।

वह नहीं बयान कर सकता था अपना सपना
जो रात अँधेरे में उसने देखा था
जैसे मेरी माँ हमेशा छिपाती रही
अपना सही नाम और पता
गो वह पूरे एक सौ वर्ष जीवित रही ।

मैंने उससे कहा
कुछ बोलो
बोलो कि लोग जान सकें उन भयानक प्रेतों की दास्तान
जो अक्सर तुम्हें डराते रहते हैं ।
वह चुप रहा ।
और टकटकी लगाए देखता रहा
सामने की तनी हुई पहाड़ियों को ।

फिर उसके शरीर में कुछ हरकत हुई
जैसे वह उठने की कोशिश कर रहा हो
पर बैठा रहा
जब मैंने उसकी ठिठुरी उँगलियों को
सहारा देना चाहा
तो उसने मेरी ओर ऐसे देखा
जैसे मैं उसका वध करने के लिए बलिवेदी की ओर खींचे लिये जा रहा हूँ ।