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वां पहुंचकर जो ग़श आता पै-ए-हम है हमको / ग़ालिब

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वां पहुंच कर जो ग़श आता पए-हम है हम को
सद-रह आहंग-एज़मीं बोस-ए-क़दम है हम को

दिल को मैं और मुझे दिल महव-ए-वफ़ा रखता है
किस क़दर ज़ौक़-ए गिरफ़तारी-ए-हम है हम को

ज़ुफ़ से नक़श-ए-पए मोर है तौक़-ए गरदन
तिरे कूचे से कहां ताक़त-ए-रम है हम को

जान कर कीजे तग़ाफ़ुल कि कुछ उममीद भी हो
यह निगाह-ए-ग़लत-अन्दाज़ तो सम है हम को

रशक-ए हम-तरही-ओ-दरद-ए असर-ए बांग-ए हज़ीं
नालह-ए मुरग़-ए सहर तेग़-ए दो-दम है हम को

सर उड़ाने के जो वादे को मुकर्रर चाहा
हंस के बोले कि तिरे सर की क़सम है हम को

दिल के ख़ूं करने की क्या वजह वलेकिन ना-चार
पास-ए बे-रौनक़ी-ए दीदह अहम है हम को

तुम वह नाज़ुक कि ख़मोशी को फ़िग़ां कहते हो
हम वह आजिज़ कि तग़ाफ़ुल भी सितम है हम को

लखनऊ आने का बाइस नहीं खुलता य`नी
हवस-ए सैर-ओ-तमाशा सो वह कम है हम को

मक़त-ए-सिलसिलह-ए शौक़ नहीं है यह शहर
अज़म-ए-सैर-ए-नजफ़-ओ-तौफ़-ए हरम है हम को

लिये जाती है कहीं एक तवक़क़ु` ग़ालिब
जादह-ए रह कशश-ए काफ़-ए करम है हम को

अबर रोता है कि बज़म-ए तरब आमादह करो
बरक़ हंसती है कि फ़ुरसत कोई दम है हम को