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वाइल्ड-एलिक्सिर / आनंद खत्री
Kavita Kosh से
एसटी-लाउडर के
वाइल्ड-एलिक्सिर की
महक में सराबोर
हिन्दी
अक्सर ही
जब तुम्हारे स्कूटी के
पीछे
जबरन चढ़ बैठती है
तो उसे चिढ़ाने के लिये
दायें-बायें, उल्टा-सीधा
चलाती हो तुम;
तब
देखा है मैंने कि
हिन्दी चीखकर
लिपट जाती है
कमर से तुम्हारी
करधनी बनकर
और फिर जब
अपने अधरों को
ले भिड़ती है
ज़ुबान
तुम्हारे ब्लाउज की
उजली पीठ की
रेफ पर
तब तुम्हारी रंगीली पाजेब
का एक नुख़्ता
खनक कर पाँव की
अँगुलियों की बिछिया में उलझी
कोहलापुरी को
गाड़ी की ब्रेक पर
उर्दू करता है।
माथे पे सजी बिंदियां
साड़ी, टीके, बिछिया, हिजाब
ठोड़ी के तिल
समेत
बिना ट्रैफिक के
एहसासों से
एक्सीडेंट कर पड़ी है।
अचेत कविता तुम्हारी
फिर भी
बेसुध
बुदबुदा रही है
प्यार-मोहब्बत की बातें।
कहती है
"चले आओ"