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वागाम्भृणी सूक्त, ऋग्वेद - 10 / 125 / 7 / कुमार मुकुल
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एह आकाश में
किरण मुकुट से सजल
सुरूज देवता के
हमहीं सिरजले बानी।
इ समुंदर आ अंतरिक्ष
हमार घर बा।
चेतना रूप में हम
इ त्रिलोकी में
बेआपत रहींला॥7॥
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ॥7॥