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वाणी की वाणी / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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मेरे अंकगणित का एक बिन्दु महासिन्धु,
अन्तहीन अम्बरवितान मेरे सूत्रों का-
देश और काल का मिलन-बिन्दु।
मेरे ही अन्वेषण में निरत-
दर्शन का दृष्टिपथ।
मेरी परिवादिनी वसन्त में,
देती मदमत्त बने कोकिल को-
प´्चम का चिर-नूतन कल निनाद।

मेरे बवण्डर के भँवर से दूर तक,
लहरें बनातीं शिखर लहरों के।
सप्तमहासिन्धु के जल-तल पर!
बदल देते मेरे ही आवर्त्तन-परावर्त्तन,
मानसून पवन की दिशाओं को!
मेरी ही आकर्षण-शक्ति से,
साथ लिए फिरती धरित्री मयंक को।

मेरी महाशक्ति की महिमा से वामन विराट बन,
रखता है तीन चरण!
मेरे ही प्राणमय रक्त-स´्चालन से,
चलता है वृहत्-लघु चक्र ज्वार-भाटा का
नियत उच्च और अधःस्थान से।
मेरे अखण्डित आयु-यज्ञ में,
ऊर्जित प्राणधारा का अमृत-कुम्भ!
मेरे रथ-चक्र की नाभि में सूर्य-चन्द्र,
रचते सोपान-मार्ग पृथिवी से अम्बर तक!

मेरे प्रवाह की अखण्ड धारा उद्दाम वेगमयी,
दौड़ती विरोधी दिशाओं में!
बढ़ जाता दैवबल-
मेरे पुरुषार्थ का सहारा पा।
मेरे चित्रांकन की शैली की एक झलक
मंगल का लाल बिम्ब।
बदल देती मेरी ही अंगकान्ति,
मढ़कर प्रकाश की किरणों से-
अम्बर की नीलिमा को धवलिमा में।

सर्पाकार तड़ित मेरी ताल पर गाती-सीप
काजल उगलती-सी काली मेघ घटा में।
कड़क कर छोड़ती है लाल-लाल लपटों को।
मेरा ही तापमान करता प्रवेश वायुमण्डल में,
मेरे नयननीर में सागर अनन्त हैं।
मेरा नियामक बिन्दु भर देता त्रिभुवन को जीवन से!

लाता है खींच कर भूतल पर-
प्रज्ञापारमिता का मेरा रूप-
शून्य में उड़नेवाले ज्ञान को।
वलयाकार पंक्तियों में मेरा आलोक-वृत्त,
डालता भविष्य की दौड़ में भूत-वर्त्तमान को!
मेरी ही लहरों के थपेड़े खा,
चिह्न बन जाते खरोंचों के-
सागर तटवर्ती चट्टानांे पर।

पैनी धार वाले मेरे रन्दे की रगड़ से-
चिर कर शिलाखण्डों में बनते त्रिकोण-तल,
कट-पिटकर खुरदरे किनारेवाले धारदार,
खुरच कर नोकदार, ढालदार पहलवाले।

मेरी प्राणधारा से गहन नग-गहवर में,
हहराता बज्रनिर्घोष से भीषण नद हिमानी का!
मेरी वक्ररेखा के चन्द्राकार वलय में,
टूट कर गिरने वाले धूमकेतु-
घूम रहे सूर्य के मण्डल को घेर कर।
मेरे विनियोग के छन्द में जड़-चेतन,
रुद्र, वरुण, अग्नि, वायु, विद्याधर,
मास, पक्ष, अयन, कल्प, संवत्सर।

चरित और ज्ञान का विराट मेरा वर्णपट,
बदल देता काल के विधान को!
रहता मैं ध्यायमान अपने ध्रुवबिन्दु पर,
द्वन्द्वों से, रागों से ऊपर जड़तत्त्वों से!
स्वर्गों का स्वर्ग मेरे भीतर है,
केन्द्र आकर्षण का!

महमहाते उन्मादन पवन चिर-सुन्दर के,
टटके खिले चम्पा के प्रसून की-
मदमयी सुगन्धि ले!
केसर उड़ाते हुए गगन के झरोखे पर!
लाते झकोरे संगीत के!
मेरा असीम आनन्द शब्दातीत है।

चिन्ता, भय, विषाद की जलन को दूर कर,
क्षुद्र अहंभाव को किनारे कर,
फैला उन्माद मधुमास का,
निकल रहे ऋतगामी मेरे सूक्ष्म मन से,
विद्युत, प्राण, जीवन के मालकौस-
भरते हुए चारों ओर अमृत-तत्त्व!
जैसे गन्ध फूल से, प्रकाश किरण-जाल से,
स्वर की संगतियों में बोतलतान निर्झर से।