वाणी पुत्रों ! पांचजन्य फूँको / विमल राजस्थानी
जी करता है-कलम तोड़ दूँ
मसि पी जाऊँ, कागज फाडूँ
चिता सजा कर जलूँ स्वयम्
या कब्र खोद कर खुद को गाडूँ
सरस्वती का वरद पुत्र हो
राजनिति के तलवे चाटूँ
इससे पहले काट स्वयम् को-
खंड-खंड गिद्धों में बाँटूँ
धनी लेखनी के वे ही-
जिनका गर्वोन्नत भाल रहा है
जिनकी तनी भृकुटियों के-
वश में, कर बाँधे, काल रहा है
जो गढ़ते इतिहास, रही है-
राजनिति चरणों की दासी
वे मसि-जीवी, सरस्वती-
के वरद-पुत्र क्यों वरें उदासी
कब से सुनने को आतुर-
भारत माता, वाणी का गर्जन
नहीं शिथिल पछया बयार,
चाहिये देश को प्रबल प्रभंजन
सच है-भूख बड़ी पापिन है,
शिशुओं का क्रन्दन दहलाये
क्वाँरी तरूण बेटियों की-
सूनी माँगें दिन-रात जलायें
किन्तु दोष ‘जारों’ को देना व्यर्थ
उन्हें तो यही चाहिए
कवि-लेखक की पूजा करे समाज
उन्हें यह नहीं चाहिए
‘‘फेंको, याचक हैं, उपाधि के-
टुकड़े, कुछ पैसों की ढेरी
दबा-पिसा रहने दो, इनकी-
दुनिया रक्खो सदा अँधेरी’’
‘‘जिस दिन ये खुद को लेंगे-
पहचान, प्रलय निश्चय आयेगा
टूटेंगे कुर्सी के पाये,
पल में पत्ता कट जायेगा’’
यह ‘पन्द्रह अगस्त’-आजादी-
का त्यौहार हमारा भी है
यह ‘छब्बीस जनवरी’ यह अन-
मोल सिगाँर, हमारा भी है
क्या गाकर डंडे खाये थे
लिक्खा था किसने वह गाना
कवि के स्वर का चमत्कार था
सारा राष्ट्र हुआ दीवाना
खौल रहा था खून, गुंजरित-
कोटि-कोटि कंठों में नारा
चूम-चूम फाँसी का फन्दा
‘‘झण्डा ऊँचा रहे हमारा’’
वाणी-पुत्रो ! ‘पांचजन्य’ फूँको
द्रौपदी पुकार रही है
यह स्वतंत्रता-सीता रावण-
के घर चीत्कार रही है
सड़ी गली इस कुटिल व्यवस्था
के जहरीले पंख कुतर दो
‘‘राम-राज्य’’ लाओ, घर-घर-
आँगन-आँगन प्रसन्नता भर दो