भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वादी-ए-ख़याल / नीना कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पैरहन-ए-आफताब में ढकी, बादलों की चिलमन में कभी
धुंआ सी उठती है ये वादी किसी ख्वाब के मंज़र की तरह

और ऊंचे परबत तले, शाखों की पलकों से आहिस्ता
चश्मे-ए-नम है देखे, किसी रानाई की फैली हुई नज़र की तरह

और कुछ देर के लिए जैसे पिन्हा हो गई दुनिया की हर शय,
हर ग़म, हर ख़ुशी, किसी गुज़रे हुए से सफ़र की तरह

और दरया-ए-वक़्त से बाहर अंजान साहिल पे हो गए ताखीर
हर ज़ख्म-ए-सवाल, दर्द-ए-ज़ीस्त, शब्-ए-हिज्र की सहर की तरह

शम्स मेहमा हुआ फ़लक पर फिर, हर ज़र्रा हुआ ज़र फिर,
वक़्त की दस्तक से ओस ओस दरया-गिरफ़्ता हुई हयात किसी लहर की तरह

ज़िन्दगी-अज़ल, सुबह-शाम, बेमानी फैसलों के दर्मियाँ, है रह गया
बर्फ यादों का शहर और वादी-ए-ख़याल संग-ए-मर्मर की तरह