भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वापसी / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
कई दिनों की थकान छोडक़र
वह वापस ताजगी में लौट आया है
जैसे पतझड़ के बाद लौट आते हैं पत्ते
या सीलन भरी बरसात के बाद जाड़े
और वह प्रफुल्लित लग रहा है कितना
जैसे सुबह का फूल खिला हो अभी-अभी।
काम-काज, सब में गति है
जैसे हवा से पंखुडिय़ां हिल रही हों ।
मेंहदी का रंग जैसे चढ़ जाता है हाथों में
वैसा ही अनुभव पा लिया था उसने
कलम को पकड़ता है वो अब अच्छी तरह से
और चूक नहीं करता सामानों को गिनने में
ना ही देर लगाता है काम से वापस लौटने में
कितना बदल गया है वह
बदल गयी है उसकी सारी थकान, ताजगी में।