वापसी / मोहन कुमार डहेरिया
होती है
एक - न - एक दिन सभी की वापसी
कोई कोलम्बस-सा लौटता है नयी धरती की खुशबू से गमकता
कोई लौटता पहन चीखों का ताज अपनी कौम के बीच
कोई लौटता अपनी स्मृतियों से फूटती प्रकाश की बेहद
पतली रेखा के सहारे
लौटता कोई दबे पाँव शर्म की घनी झाड़ीयों के पीछे-पीछे
किसी के लौटते ही आसमान से बरसते फूल
किसी की वापसी पर हलक में फँस जाती जुबान
पिता की देहरी पर आ गिरती जब बेटी की दहकते कोयले जैसी
देह
अब करे तो करे कोई दावे
पाले चाहे मुगालते
कितना भी वजनी हो सीने से बँधा संकल्प का पत्थर
कितना भी गहरा हो प्रेम का गोता
उछालती ही है ऊपर एक - न - एक दिन समय की नदी
प्रेमियों की देह
कोई लौटता है अपनी बन्दूक को सितार-सा बजाता
किसी की आत्मा की लौ में पहले से ज्यादा धुआँ
लौटा हो जैसे ईश्वर से गहरी बहस के बाद
होती है
एक - न - एक दिन सभी की वापसी