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वायलिन के गले की दहाड़ / श्रीधर नांदेडकर / सुनीता डागा
Kavita Kosh से
तब तक
मूक जानवर होती है
वायलिन
जतन कर रखना पड़ता है
आत्महत्या कर चुकी
माँ के बच्चे का रोना
देखना होता है
एक बार पेड़ से गिरकर
फूटे अण्डों की तरफ़
और एक बार एक-दूजे को ताकते
कपोतों की आँखों को तलुवे पर धरकर
याद रखना पड़ता है
भूख से बिलबिलाने पर
अपनी थाली में गरम रोटी परोसकर
धुकधुकी से पसीने से तरबतर चेहरे को पोंछते
फटेहाल आँचल को
रंगीन चिथड़ों की झूलती चिड़िया के नीचे
हँसता हुआ नन्हा जीव
बच्चे को पीठ पर लादे
दौड़ते हुए नंगे पैर
पीहर को पीछे छोड़ती रेलगाड़ी
हज़ारों दृश्य ख़ून में दिपदिपाते रहेंगे
और
समन्दर लाँघकर
मौत के द्वार पर क़दम रखते
बच्चे की दहाड़
वायलिन के गले से बाहर निकलेगी
तब तक
मूक जानवर होती है
वायलिन !
मूल मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा