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वायु चली अविजय सैन्य की / केदारनाथ अग्रवाल

वायु चली अविजेय सैन्य की

हलचल दौड़ी

नीड़ों से निकले प्रभात के जागे पंछी,

पंख पसारे फैल गई ललकार लहर की,

धुँआ नहीं यह जमा हुआ

जीवन पिघला है दिशा-दिशा में,

फन काढ़े फुफकार-क्रूर-संहार

शिलाओं पर उमड़ा है,

नत होंगे ही अब अवनत

प्रलंयकर दानव,

हत होंगे ही अब अनहत

प्रलयंकर दानव,

आग-राग-रंजित स्वदेश का

महावीर का रक्तवेश है;

उत्तर के संकट से लड़ कर

जय पाने को प्राण शेष है ।