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वार्ता:पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"
Kavita Kosh से
वतन पे मिटने वालों तुम अमानत हो ज़माने की
भुला सकते नहीं कुर्बानियाँ हम जाँ लुटाने की
न हमने सिर झुकाया है किसी दुश्मन के कदमों में
कभी परवाह न हमने की है अपनी जान जाने की
मुझे यह पूछना है इन सियासी हुक्मरानों से
इजाज़त कब मिलेगी देश में अब मुस्कुराने की
कहीं कश्मीर में मौतें कहीं गुजरात में लपटें
कभी आसार बदलेंगे या साजिश है मिटाने की
बदलते रोज़ अपने तुम बयाँ और दल बदलते हो
सताती है तुम्हे चिंता अरे कुर्सी के जाने की
न बिजली है न पानी है बची हैं सिसकियाँ बाकी
बयाँ मैं क्या करूँ अपनी जुबाँ से इस ज़माने की
अगर खल्कत युहीं बढ़ती रही इस देश की "आज़र"
जरुरत दस्तकें देगी सभी को घास खाने की