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वार हर एक मेरे ज़ख़्म का हामिल आया / नज़र जावेद
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वार हर एक मेरे ज़ख़्म का हामिल आया
अपनी तलवार के मैं ख़ुद ही मुक़ाबिल आया
बाद-बानों ने हर इक सम्त बदल कर देखी
कोई मंज़र न नज़र सूरत-ए-साहिल आया
गर्द होने ने ही महमेज़ किया मेरा सफ़र
मेरा रस्ता मेरी दीवार में हाइल आया
इस फ़ुसूँ की कोई तौज़ीह नहीं हो पाती
उस के हाथों में भला कैसे मेरा दिल आया
दर्द से जोड़ लिया साज़ ने रिश्ता अपना
और फिर सोज़ पहन कर तेरी पायल आया
एक तख़रीब तवातुर से रही दिल में मेरे
इक तसलसुल सा मेरे हाल में शामिल आया
जिस का अंजाम हुआ उस की शुरूआत न थी
राह पर आ न सका जो सर-ए-मंज़िल आया
ज़िंदा रहने के तक़ाज़ों ने मुझे मार दिया
सर पे ‘जावेद’ अजब अहद-ए-मसाइल आया