Last modified on 2 जनवरी 2010, at 13:44

वास्तविकता / जीने के लिए / महेन्द्र भटनागर

ज़िन्दगी ललक थी; किन्तु भारी जुआ बन गयी,
ज़िन्दगी फ़लक थी; किन्तु अंधा कुआँ बन गयी,
कल्पनाओं रची, भावनाओं भरी, रूप - श्री
ज़िन्दगी ग़ज़ल थी; बिफर कर बददुआ बन गयी!