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वा निरमोहिनि रूप की रासि न ऊपर के मन आनति ह्वै है / ठाकुर

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वा निरमोहिनि रूप की रासि न ऊपर के मन आनति ह्वै है ।
बारहि बार बिलोकि घरी घरी सूरति तो पहिचानति ह्वै है ।
ठाकुर या मन की परतीति है जा पै सनेह न मानति ह्वै है ।
आवत हैँ नित मेरे लिये ईतनो तो विशेषहि जानति ह्वै है ॥


ठाकुर का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।