भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वा हुआ फिर दरे-मैखान-ए-गुल / नासिर काज़मी
Kavita Kosh से
वा हुआ फिर दरे-मैखान-ए-गुल
फिर सबा लाई है पैमान-ए-गुल
ज़मज़मारेज़ हुए अहले-चमन
फिर चरागां हुआ काशान-ए-गुल
रक्स करती हुई शबनम की परी
ले के फिर आई है नज़रान-ए-गुल
फूल बरसाए ये कहकर उसने
मेरा दीवाना है दीवान-ए-गुल
फिर किसी गुल का इशारा पाकर
चांद निकला सरे-मैखान-ए-गुल
फिर सरे-शाम कोई शोलानवा
सो गया छेड़ के अफसान-ए-गुल
आज ग़ुरबत में बहुत याद आया
ऐ वतन तेरा सनमखान-ए-गुल
आज हम ख़ाकबसर फिरते हैं
हमसे पूछे कोई अफसान-ए-गुल
कल तेरा दौर था ऐ बादे-सबा
हम हैज अब सुर्खिये-अफसान-ए-गुल
हम ही गुलशन के अमीं हैं 'नासिर'
हम सा कोई नहीं बेगान-ए-गुल।