विंदा करंदीकर का लेखन / संजय कुंदन
मराठी कवि, निबंधकार और चिंतक विंदा करंदीकर का लेखन मनुष्यता की खोज का एक विराट अभियान है। इसी अन्वेषण के क्रम में उनके साहित्य में जीवन की विविध छवियां आई हैं। विंदा विचार की रोशनी में जीवन को जानने-समझने की कोशिश करते हैं, पर उस विचार की सीमा को जानकर उससे आगे भी बढ़ जाते हैं। किसी दर्शन से उन्हें दृष्टि मिलती है, पर वे उस पर आश्रित नहीं होते। यही वजह है कि मार्क्सवाद से गहरे स्तर पर प्रभावित होने के बावजूद वह उस पर भी सवाल उठाने से नहीं चूके। दरअसल तमाम विचार पद्धतियों से प्रेरणा लेते और उनसे टकराते हुए वह एक ऐसे सूत्र की तलाश में व्यग्र दिखते हैं, जो मनुष्य मात्र की मुक्ति में सहायक हो और इसीलिए वे मार्क्स के अलावा तुकाराम, कन्फ्यूशियस और अश्वघोष तक के क़रीब जाते हैं।
विंदा 1950 के आसपास मराठी कविता में सक्रिय हुए। यह वह दौर था जब मराठी कविता में आधुनिकतावादी प्रवृत्तियां मुखर हो रही थीं और उसके प्रभाव में एक 'नई कविता' सामने आ रही थी। विंदा भी आधुनिकता से प्रेरित थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद मनुष्य के एकाकीपन और नए दौर में उसकी नियति का प्रश्न मराठी कविता में एक नई भाव भंगिमा के साथ उठाया जा रहा था। लेकिन विंदा की कविताओं में अस्तित्ववाद एक रूढि़ की तरह नहीं आया। इसकी एक बड़ी वजह यह थी कि उनका काव्य व्यक्तित्व परंपरा में भी अपनी राह खोजता रहता था। इसलिए अखिल विश्व और संपूर्ण मानवता की चिंता के साथ ही उनमें निपट स्थानीयता भी है और यही एक महान रचनाकार का लक्षण भी है। लेकिन एक तत्व जो शुरू से अंत तक उनमें मिलता है, वह है आम आदमी के प्रति एक गहरा अनुराग। अपनी प्रतिबद्धता और काव्य दर्शन को वह 'जाणीवनिष्ठा' कहते हैं। अपनी पुस्तक 'उद्गार' में वह लिखते हैं, 'यह जाणीवनिष्ठा ही मेरे काव्य लेखन में ...निरंतर दृढ़ और स्पष्ट होती गई। मेरे द्वारा प्रयुक्त मुक्त छंद, भिन्न-भिन्न शब्द प्रयोग, सुर और लय इसी जाणीवनिष्ठा से नि:सृत हैं। '
विंदा उस तंत्र की गहन पड़ताल करते हैं जो मानव शोषण का जाल रचता है। उन्होंने अपनी अधिकतर कविताओं में जनता के सुख-दुख को बगैर लाग-लपेट के व्यक्त किया। इस तरह की उनकी एक कविता 'ती जनता अमर आहे' काफी प्रसिद्ध है। उनकी ऐसी कई कविताएं हैं जो समाज के शोषित और पीडि़त पात्रों के रहन-सहन और दैनंदिन जीवन को सामने लाती हैं। ऐसी ही एक कविता है- 'ढोंढ्यान्हावी'। इसमें गांव के ढोढ्या नामक नाई की कथा है। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि लेखन वस्तुत: एक सामाजिक दायित्व है और एक रचनाकार की यह भी जिम्मेदारी है कि वह साहित्य को जनता के बीच ले जाने के लिए खुद प्रयत्न करे। इसी के तहत विंदा ने पूरे महाराष्ट्र में घूम-घूमकर सैकड़ों काव्यपाठ किए। ये यात्राएं उनके लिए अमूल्य साबित हुईं। इस दौरान उन्होंने जनजीवन के व्यापक अनुभव हासिल किए। उनकी रचनाओं में अनुभव की प्रामाणिकता इसी कारण है। उनमें जो मनुष्य है, वह कोई प्रारूपिक या गढ़ा हुआ नहीं है। वह अपनी तमाम कमजोरियां और क्षमताओं से युक्त एक संघर्षरत नागरिक है, जिसका जीवन एकायामी नहीं है। विंदा आदमी के समस्त भावों में पैठते हैं। उनमें प्रेम की सघन अनुभूति मिलती है। उनकी एक लंबी प्रेम कविता है- त्रिवेणी। इसमें प्रेम की तीन स्थितियों- शैशव का निर्दोष-निश्छल प्रेम, यौवन की आवेगमयी प्रेमधारा और प्रौढ़ावस्था के स्थिर-गंभीर प्रेम- के चित्र हैं। आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई इस कविता में गीति तत्व का उत्कर्ष दिखता है। उनमें जो प्रेम है वह एक तरफ तो लौकिकता का स्पर्श करता है तो दूसरी तरफ आध्यात्मिकता की ऊंचाई को छूता है। एक बानगी देखिए- तीरथ यात्रा करते करते, अनजाने / औचक पहुंचा तेरे द्वार /पा गया देह में तेरी/ सब तीर्थों का सार / अधरों पर, सखि, वृंदावन/ प्रयाग तेरी पलकों पर / माथे पर मानसरोवर/ अरु गंगोत्री ग्रीवा में।
उनके काव्य संस्कार की नींव परंपरा में जरूर है। मगर वे शास्त्र को लोक की ताकत से चुनौती देने वाले साहसी कवि हैं। परंपरा के वही तत्व उन्हें स्वीकार्य हैं, जो लोक के पक्ष में हैं। वे मिथकों और मान्यताओं का विरूपीकरण भी करते हैं। मकसद है उनमें निहित विसंगतियों को उद्घाटित करना। इस क्रम में उन्होंने नई तरह की भाषा ईजाद की, प्रचलित स्थापत्य को झटका दिया। उनमें भाषा के कई शेड्स मिलते हैं। कई जगहों पर एकदम अनोखे चित्र और प्रतीक ले आते हैं, तो कहीं परंपरागत तरीके से अपनी बात कहते हुए उनमें तनिक फेरबदल कर नया आशय डाल देते हैं। उन्होंने अनेक कविताओं में प्लेटो, महाभारत, वेद, गीता, इतिहास और विज्ञान के संदर्भ प्रस्तुत किए हैं और उन्हें आशयोन्मुख प्रतीकों में बदल डाला है। वे ठोस सामाजिक यथार्थ और व्यक्ति के अंतर्मन का चित्र एक साथ बड़ी सहजता से प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने परंपरागत रूपबंधों का भी नए ढंग से प्रयोग किया। यह उनके द्वारा रचित 'आततायी अभंग' 'गाल' और 'सूक्त' से स्पष्ट होता है। उन्होंने 'कीर्तन' और 'गोंधळ' जैसी शैली में भी नए अर्थ भरे। उन्होंने ढेरों सॉनेट भी लिखे। उनके पांच काव्य संग्रह खासतौर से चर्चित हैं- स्वेदगंगा, मृद्गंध, ध्रुपद, जातक और विरूपिका। कविता की तरह ही उनके लघु निबंध भी काफी लोकप्रिय रहे हैं। वह एक कुशल अनुवादक भी हैं। उन्होंने शेक्सपियर और अरस्तू की रचनाएं मराठी में प्रस्तुत कीं। संत ज्ञानेश्वर के ग्रंथ 'अमृतानुभव' का आधुनिकीकरण उनकी एक महत्वपूर्ण देन है। इन सबके अलावा उनका बाल साहित्य भी एक अलग ही महत्व रखता है। बाल साहित्य के लेखन से उनके जुड़ाव की कथा बड़ी रोचक है। एक बार उनके छोटे बेटे के मन में एक विचित्र ग्रंथि बैठ गई। वह बात-बेबात डरने लगा। कभी किसी पेड़ की छाया या किसी व्यक्ति से डरकर वह रोने लगता। विंदा रोज उसे एक कविता सुनाने लगे। जिससे वह खुश रहने लगा और धीरे-धीरे उसका भय भी जाता रहा। विंदा ने महसूस किया कि उनकी ये कविताएं दूसरे बच्चों के मनोभावों को भी प्रभावित कर सकती हैं। यह सोचकर उन्होंने बड़े मनोयोग से बाल कविताएं लिखीं। इसके लिए उन्होंने बच्चों के अनुकूल और उन्हें लुभाने वाले सुर और लय की तलाश की। उनकी बाल कविताओं ने बच्चों पर जादू सा असर किया। विंदा करंदीकर ने मराठी में जरूर लिखा, लेकिन उनका साहित्य पूरे देश के लिए गौरव का विषय है।