विकल्प / ओमप्रकाश सारस्वत
मैं कहता हूँ
कुछ भी चुनो
भय,विश्वास
समझौता,बग़ावत
पर अपने अंतर्मन से चुनो
इसका क्या लाभ कि
तुम खुद की लड़ाई
खुद के खिलाफ हार जाओ
केवल इसलिए कि
तुम्हारे मन को
तुम्हारी वाणी का साथ न मिल सके
जबकि मन भी तुम्हारा है
और वाणी भी तुम्हारी
कहने वाले भले ही कहें कि
'बीच की स्थिति' दोनों को संतोष देती है
किंतु प्राणी जब भी मरता है
मझधार में ही मरता है
किनारे कैसे भी हों
(भले ही रेतीले ही)
आखिर सहारा होते हैं
(धारा उन्हीं के बलबूते पर
कूदती जाती है सिन्धु तक)
तुमने अगर गालियाँ ही बकनी हैं
तो बको
अप्र पीठे के पीछे नहीं
तुमने अगर विश्वासघात ही करना है
तो करो
पर अपने विशवास के बल पर
चाबी पाया हुआ खिलौना
आखिर कब तलक बज लेता है
मैं कोई पहेली नहीं बुझा रहा
पर सुझा रहा हूँ एक तरकीब
जिससे किसी की भी
कब-अज़-कम एक पहचान बनती है
दुनिया में एक पहचान बनाके
मरना भी एक बहुत बड़ी उपलब्धि है
अन्यथा आपके पास
सैंकड़ों तर्क हैं
आप कैसे भी मर सकते हैं