विकास-क्रम / दिनेश कुमार शुक्ल
ऊर्ध्वाधर प्रलम्ब बाहु!
प्रतिहत-स्कन्ध आज
इतने निढाल
तुम काहे हुए जाते हो!
अप्रत्याशित वर्षा में
तृप्त हो रहे हैं देखो
दिग्-दिगन्त साधु-सन्त
हा हन्त!
ऐसे में भी तुम
उदास हुए जाते हो
ईर्ष्या से वैसे भी
मुक्त कब हुए थे तुम
पथी प्रगतिपन्थ के
पुरातन पुरोगामी! साथी तुम्हारे सब
नामी-गिरामी अब
रहे होगे सचमुच
कुटिल-खल-कामी तुम
वही ‘पिटिर बुर्जुवा’
देखते नहीं हो
भारत के पन्द्रह करोड़ नये प्रगतिमान
राकेट की गति से अब छूते हैं आसमान
बाकी जो तुम जैसे सौ करोड़
लिये पेट में मरोड़
कौन पूछता है उन्हें
रहो मृत्युलोक में बनो भार पृथ्वी का
पृथ्वी तुम्हारे होने से फट सकती है
तुम्हारे साँस लेने से
निकलती है मीथेन
बढ़ता है प्रदूषण
तुम्हारी भूख के चलते ही
अन्न की विश्वव्यापी कमी हुई
इसलिए चिन्ता करो
और जानो कि
जिन्दा बने रहते हैं असंख्य जीव
सिर्फ धूल में मिले हुए
चुटकी भर नमक की गिजा पर
और अचरज मत करो-
कौन जाने
आ गया हो वक्त अब
दो फाड़ हो रही हो मानुस की जात जब
जीवन के अप्रतिहत क्रमिक विकास में।