भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
विचारशून्य-सा मैं / मनीष मूंदड़ा
Kavita Kosh से
कभी कभी सोचता हूँ
बस बहुत हुआ
अब घर को चलता हूँ
पर फिर सोचता हूँ
घर रहा कहाँ
बरसों बरस हुए उसे ढहे हुए
अब बस वीराने रास्ते हैं
टूटे मकान के अवशेषों को संभाले
एक निराशा है कहीं
चकाचोंध के शोर में
मन में
एक घबराहट-सी है अंदर मेरे
आँखों से मेघ बन बरसने को तैयार
कभी भी
कोई छोटी-सी बात को ले कर
एक सहमा-सा अकेलापन लिए है
मुझमें कहीं
मेरा अपना मन
मानो चाह के भी कुछ
कह नहीं पा रहा हो
बस घर की ओर इशारा करता
मेरे अपने अंतर्मन को कैसे दिखाऊँ
बाहर क्या घट रहा है
उसे कैसे समझाऊँ
अब वह सब टूट चुका है
काफी पीछे छूट चुका है
भग्नावशेषों में इंगित हुआ
जैसे कुछ मेरे अंदर है
वैसे ही कुछ मलबा बाहर बिखरा पड़ा हैं