विचारों की यात्रा / दीपा मिश्रा
तुम कुछ इस तरह से
मेरे ख्यालों में
जज्ब हुए जा रहे
कि जैसे वर्षों से
तप करते योगी की
साधना पूर्ण हुई हो
उसे मनचाहे वरदान
की प्राप्ति हुई हो
तोड़ डाला गया
सर्प पाश जैसे
मुक्त हो चुका विष से
शरीर जैसे
मृगतृष्णा के भटकते
मृगया ने अंततः
कस्तूरी का स्वाद चखा हो
आओ एक नये विश्वास का
आह्वान करते
जिसमें काया की प्रधानता न हो
आधिपत्य हो विचारों का
भावनाओं का
जो आम लोगों की
कल्पना से परे हो
जिसमें पल भर में तृप्तता से
अंतरिक्ष तक की दूरी
तय की सके
आओ चलें हम तुम
उस नये सफ़र पर
तुम अपने संग रख लो
फ़ैज मीर मराज को
हम अपने साथ मंटो
महादेवी चुगताई को
फिर मजा आयेगा
जब जम के विचारों की
अदला-बदली होगी
अमृता इमरोज़ साहिर
को भी दोहरा लेंगे
संभाल कर रख
लिया जायेगा
बीते लम्हों की
यादों को भी
जब जी चाहा मिल बांट लेंगे
रास्ते में रूककर तुम
मेरे लिए पारिजात के
फूल चुन लेना
मैं अपनी पोटली से निकाल लूँगी
खुसरो की पहेलियों को
गाहे बगाहे पूछ लिया करूँगी
तुम भी अपनी पुरानी डायरी
पढकर सुनाना मुझे
चुपके से लगा दूंगी मैं
तुम्हारे बालों में मोरपंख को
सालों से जिसे सहेज कर
रखी थी मैं
फिर एक नये भोर का
बिगुल बजेगा
जिसमें विचारों के
महाभारत का आगाज़ होगा