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विजयागमन / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

आती हो प्रतिवर्ष दिखा जाती हो गरिमा;
भर जाती हो मुग्ध मनों में महा मधुरिमा।
कितनी ही कमनीय कलाएँ हो कर जातीं;
विविध जीवनी शक्ति जाति में हो भर पाती।
किंतु आज भी जाग न पाई भारत-जनता;
है इतनी बल-हीन, कुछ नहीं करते बनता।
चलती है वह चाल, पतन है जिससे होता;
गेह-गेह में कलह-बीज जन-जन है बोता।
गरल-हृदय हैं परम-मधुर-मुख बने दिखाते;
जल-सेचन-रत जहाँ, तहाँ हैं आग लगाते।
ले सुधार का नाम लोग हैं काँटे बोते;
पथ में लंबी तान लोक-नेता हैं सोते।
देश-प्रेम की लगन किसे सच्ची लग पाई;
कौन कर सका सत्य भाव से देश-भलाई।
देखा आँखें खोल कहाँ मिल सका उजाला;
घर-घर में है भरा हुआ अब भी अँधियारा|
क्या दिगंतव्यापिनी कीर्ति फिर फैलाएगा?
उसका गौरव-गीत क्या जगत फिर गाएगा?
पूर्व विभव कर लाभ क्या पुन: प्रबल बनेगा?
विजये, क्या फिर विजय-माल भारत पहनेगा?