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विज्ञान का गंभीर स्वर / अज्ञेय

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विज्ञान का गम्भीर स्वर कहता है, विश्व का प्रस्तार धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है-विश्व सीमित होते हुए भी धीरे-धीरे फैलता जा रहा है।
दर्शन का चिन्तित स्वर कहता है, मनुष्य का विवेक धीरे-धीरे अधिकाधिक प्रस्फुटित होता जा रहा है।
फिर यह चेतन संज्ञा, यह मनोवेग क्यों संकीर्णतर, उग्रतर, तीक्ष्णतर होता जाता है? यह क्यों नहीं प्रस्फुरित हो कर, अपने संकीर्ण एकव्रत को छोड़ कर, व्यापक रूप धारण करता? क्यों नहीं हमारे क्षुद्र हृदय एक को भुला कर अनेक को-विश्वैक्य को-अपने भीतर स्थान दे पाते...?

दिल्ली जेल, 31 अक्टूबर, 1932