भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विडम्बना / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमने
जीवन भर
हाँ,
जीवन भर
मन की हर क्यारी में
सहज खिलाये
भावों के सुरभित फूल !

हमने
जीवन भर
हाँ,
जीवन भर
मन के निस्सीम गगन में
उन्मुक्त उड़ाये
अनिंद्य कल्पनाओं के
बहुरंगी दिव्य दुकूल !

हमने
जीवन भर
हाँ,
जीवन भर
मन की गहरी-से-गहरी
उपत्यका में
वैदग्ध्य विचारों के
सूरज चाँद उगाये
कर दूर तमस आमूल !

पर,
हाय विधाता !
यह कैसी अद्भुत भूल ?
घेरे तन को
अनगिनत नागफाँस नुकीले शूल,
अविराम थपेड़े झंझा के
उपहारों में देते
वंध्य विषैली धूल !
::