विदाई / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही
(एक श्वान बाला की)
टूटा एक गगन में तारा
लेकर उड़ा संदेश कबूतर।
आँसू एक
ढलक गालों पर
जाने क्या कहने आया था
मेरे ऊपर
अवसादों का
कुहरा घोर, घना छाया था
देख न पाया
सुनता कैसे
बात कहाँ थी?
मूक व्यथा थी
अब तो
इति ही हाथ रह गयी
लम्बी उस वात्सल्य कथा की
सारा ढीठपना
चंचलता
हमें दे चली
मुट्ठी भर कर।
मैंने हाथ फेर कर पूछा
कैसी हो ‘जौली’ बतलाओ
पीर तुम्हारी कुछ तो बाँटें
यों मत अपने में घुट जाओ
एक दृष्टि कातर उभरी थी
गयी चीर मेरा अन्तस्तल
हम कितने असमर्थ
नियति से
यही सोचता हूँ अब पल-पल
फूट गयीं पाषाण शिलाएँ
झरने कई
बह चले झर-झर।
कितने ड्रिप्स और इन्जेक्शन
सहन किए तुमने चुप रहकर
केवल दुआ कर रहे थे हम
आँखों के आँसू भर-भर कर
असहनीय पीड़ा से आकुल
झुकी-झुकी वे पीली आँखें
लगा कि कोई नोच रहा है
पिंजरे की चिड़िया की पाँखें
सिर्फ एक हिचकी आई थी
और गयीं
डोली में चढ़कर।