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विद्या / ‘हरिऔध’

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इस चमकते हुए दिवाकर से।
रस बरसते हुए निशाकर से।1।

जो अलौकिक प्रकाश वाली है।
बहु सरसता भरी निराली है।2।

वह जगद्वंदनीय विद्या है।
अति अनूठा प्रभाव जिसका है।3।

ज्योति रवि की जहाँ नहीं जाती।
यह वहाँ भी विकास है पाती।4।

जो शशी को सरस नहीं कहते।
हैं इसीसे अपार रस लहते।5।

यह सुधा है; अमर बनाती है।
यह सुयश-वेलि को उगाती है।6।

हो गये व्यास, वाल्मीकि अमर।
आज भी है सुकीर्ति भूतल पर।7।

कामदा यह सुकल्प-लतिका है।
शान्ति-दात्री विचित्रा बटिका है।8।

कालिदासादि कामुकों का दल।
पा चुका है अनन्त इच्छित फल।9।

शान्ति इससे शुकादि ने पाई।
दीप्ति जिनकी दिगन्त में छाई।10।

यह अमर सरि पवित्र धारा है।
जिसने जाबालि को उधारा है।11।

नीच को ऊँच यह बनाती है।
काठ में भी सुफल फलाती है।12।

था विदुर का कहाँ नहीं आदर।
कौन कहता उन्हें न नयनागर।13।

सद्गुणों का प्रदीप्त पूषण था।
वह विबुध्द-मण्डली-विभूषण था।14।

शक्ति है अति अपूर्व विद्या की।
धूम सी है विचित्र क्षमता की।15।

विश्व के बीच वस्तु है जितनी।
एक में भी न शक्ति है इतनी।16।

स्वच्छ नीले अनन्त नभ-तल का।
सूर्य, बुध, सोम, शुक्र, मंगल का।17।

इन चमकते हुए सितारों का।
पूँछ वाले अनन्त तारों का।18।

भेद सब यह हमें बताती है।
मंजु दिल की कली खिलाती है।19।

सैकड़ों कोस एक कोस बना।
रेल की है अजब हुई रचना।20।

जो समाचार साल में आता।
तार उसको तुरंत है लाता।21।

है रसायन की वह सुचारु क्रिया।
सब धरा-गर्भ जिसने छान लिया।22।

बन गयी हैं विचित्र नौकाएँ।
जो जलधि-गर्भ में चली जाएँ।23।

था असम्भव अनन्त में उड़ना।
युक्ति से दिव्य व्योमयान बना।24।

हैं नये फूल फल उपज पाते।
अब मृतक हैं सजीव बन जाते।25।

देखने भालने लगे अंधो।
पुतलियाँ कर रही हैं सब धांधो।26।

बात बहरे समस्त सुनते हैं।
वस्त्रा बंदर अनेक बुनते हैं।27।

बोलने चालने लगे गूँगे।
बन गये रंग रंग के मूँगे॥़28।

दूरबीनें, कलें, बनीं ऐसी।
हैं न देखी सुनी गयी जैसी।29।

किन्तु यह सब कमाल है किसका।
गुण-मयी एक दिव्य विद्या का।30।

जो हुए वेद-मन्त्र के द्रष्टा।
हो गये उपनिषद् के जो अष्टा।31।

आज भी उन महर्षियों का रव।
है धारातल विबुधा गिरा गौरव।32।

तर्क, गौतम, कणाद, जैमिनि का।
कृत्य पण्डित्य-पूर्ण पाणिनि का।33।

शंकराचार्य्य का स्वमत-मंडन।
सूरि श्रीहर्ष का प्रबल खंडन।34।

आज भी है अज काम आता।
है जगत में प्रकाश फैलाता।35।

यह सभी है विभूति विद्या की।
है उसीकी सुकीर्ति यह बाँकी।36।

माघ, भवभूति का सुधा-वर्षण।
भारवी का अपूर्व संभाषण।37।

यह सदा ही श्रवण कराती है।
दिव्य कल-कंठता दिखाती है।38।

है जननि के समान क्षेमकरी।
है पिता के समान प्रीतिभरी।39।

है रमणी सम सदा रमण करती।
कीर्ति को है दिगन्त में भरती।40।

धान रहित के लिए महा धान है।
यह कुजन के लिए सुशासन है।41।

है निबल के लिए अलौकिक बल।
है समुद्योग का समुत्ताम फल।42।

है विमल तेज तेज-हीनों को।
रत्न की मंजु खानि, दीनों को।43।

है जरा-ग्रस्त के लिए लकुटी।
व्यग्रजन के निमित्ता शान्ति कुटी।44।

यह बिपत में बिरामदायिनि है।
क्लान्ति में मोद की विधायिनी है।45।

सहचरी है अनिन्द्य कर्मों में।
है व्यवस्था विशुद्ध धर्मों में।46।

यह निरवलम्ब का सहारा है।
तप्त उरकी सवारि-धारा है।47।

कालिमा की कलिन्द-नन्दिनी है।
पाप के पुंज की निकन्दिनी है।48।

है कलित कंठ कोकिला ऐसी।
गुणमयी है मरालिका जैसी।49।

मोर के पक्ष लौं सुचित्रित है।
यन्त्रा की भाँति यह नियंत्रित है।50।

है विकच-मल्लिका विनोद भरी।
पल्लवित वेलि है विमुग्धा करी।51।

है हृदय-तम विनाशिनी सुप्रभा।
है सदाचार की विचित्र सभा।52।

है कला उक्ति-युक्ति में ढाली।
है तुला बुद्धि तौलने वाली।53।

स्वर्ग की सैर यह कराती है।
मंजु अलकापुरी दिखाती है।54।

है सजाती नवल जलद-माला।
है पिलाती पियूष का प्याला।55।

है सुनाती मधुर भ्रमर-गूँजन।
पक्षि-कुल का अलाप कल-कूंजन।56।

है दिखाती हरी भरी डाली।
फूल-फल से लदी सुछबि वाली।57|

है जहाँ पर त्रिविध पवन बहती।
है जहाँ मत्ता कोकिला रहती।58।

जो सदा सौरभित सुपुष्पित है।
जो सुक्रीड़ित व मंजु मुखरित है।59।

इस तरह के अनेक उपवन में।
बाग में कुंज-पुंज में, वन में।60।

है हमें यह बिहार करवाती।
है छटा का रहस्य बतलाती।61।

स्वच्छ जल-राशिमय सरोवर पर।
हिम-धावल कर प्रदीप्त गिरिवर पर।62।

यह हमें है सप्रेम ले जाती।
है सुछबि का विकास दिखलाती।63।

बुद्धि जाती जहाँ न मन जाता।
जो सदा है अचिन्त्य कहलाता।64।

जो न मिलता हमें विचारों से।
हैं न पाते जिसे सहारों से।65।

है उसे भी यही लिखा देती।
थाह उसका है कुछ यही लेती।66।


विश्व-विद्या-करों विशेष पला।
है इसी से हुआ अशेष भला।67।

है अकथ और असीम-गुण-माला।
है उसे कौन आँकने वाला।68।

है यहाँ पर कहा गया जितना।
वह अखिल के समीप है कितना।69।

कुछ नहीं है, महा अकिंचित-कर।
जिस तरह बूँद और रत्नाकर।70।

इसलिए 'नेति' 'नेति' कहते हैं।
मुग्धा होते हैं मौन गहते हैं।71।